Tuesday, March 19, 2019

Hindi Editorial for RRB PO and Clerk 19th March 2019

निजी बैंक के सीईओ का कैसे हो संरक्षण

दुनिया की सबसे तेज विकसित होती अर्थव्यवस्था में निजी और विदेशी बैंकों के सीईओ इन दिनों उदास हैं क्योंकि देश का बैंकिंग नियामक उनके वेतन भत्तों में कटौती की योजना बना रहा है। जिन लोगों को लगता है कि ये बैंकर ज्यादा कमाते हैं, या जिन्हें लगता है कि ये अपने सरकारी बैंकों के समकक्षों की तुलना में ज्यादा कमाते हैं (इनमें से कुछ की बैलेंस शीट भी बहुत बड़ी है) वे यह सब देखकर उल्लासित हैं।  देश के बैंकिंग अधिनियम के अनुसार निजी और विदेशी बैंकों को अपने पूर्णकालिक निदेशकों और सीईओ के वेतन भत्तों के निर्धारण के लिए नियामकीय मंजूरी की आवश्यकता होती है। इस मामले में रिजर्व बैंक बहुत अधिक उदार नहीं है। इसके बावजूद उनको शेयर विकल्प के माध्यम से ठीकठाक वेतन भत्ते मिलते हैं। ये उसके वेतन पैकेज से इतर होता है। 
 
अब रिजर्व बैंक चाहता है कि शेयर विकल्प को उनके चर वेतन में शामिल किया जाए। इसके लिए उनके तय वेतन से 200 फीसदी तक की सीमा तय की जाएगी। इसके लिए 50 फीसदी का आधार तय किया जाएगा। इतना ही नहीं उनके चर वेतन का कम से कम आधा हिस्सा गैर नकदी का होगा। फिलहाल बैंक सीईओ के चर वेतन को 70 फीसदी पर सीमित किया गया है और इसके लिए कोई आधार तय नहीं है। नई योजना के मुताबिक अगर कोई बैंक सीईओ एक करोड़ रुपये सालाना का तय वेतन पाता है तो उसका चर हिस्सा 50 लाख रुपये से 2 करोड़ रुपये के बीच होगा। इसमें शेयर विकल्प शामिल होगा जो इसका आधा होगा। इस प्रस्ताव के हिसाब से देखें तो कुल चर वेतन का कम से कम 60 फीसदी हिस्सा न्यूनतम तीन वर्ष के लिए लंबित रखना होगा। इसके अलावा एक ऐसा समझौता भी होगा जिसके तहत सीईओ कुछ खास परिस्थितियों में पहले ही चुकाया जा चुका वेतन-भत्ता लौटाना होगा। यह भी कि अगर बैंक फंसी हुई परिसंपत्ति का खुलासा नहीं कर रहा हो और उसके लिए धनराशि अलग नहीं कर रहा हो तो उसका विलंबित भुगतान रोका जा सकता है।
 
आरबीआई यह भी चाहता है कि बैंक अपने वरिष्ठ कर्मचारियों में से तथाकथित जोखिम उठाने वालों को चिह्नित करे, जिनके कदम बैंक के प्रदर्शन पर असर डालते हैं।  कोई भी व्यक्ति नियामक की हालिया पहल में खामी नहीं खोज सकता है जबकि इन दिनों दुनिया भर में बैंकरों के वेतन भत्तों का मसला नियामकीय सुधार के केंद्र में है। आरबीआई इस मामले में कुछ पहले दृष्टि डाल सकता था क्योंकि कुछ निजी भारतीय बैंकों में कॉर्पोरेट संचालन की स्थिति बहुत सम्मानजनक नहीं है।  अगर बैंक सीईओ के जोखिम भरे कदमों के कारण बैंक की सेहत गड़बड़ होती है या फंसे हुए कर्ज को छिपाया जाता है तो उसको पूर्ण वेतन भत्ते न देने की योजना स्वागतयोग्य है। इसी प्रकार ब्रिटेन के नियामक फाइनैंशियल सर्विसेज अथॉरिटी के तर्ज पर ऐसे अधिकारियों की पहचान के दौरान ऐसे व्यक्तियों पर ध्यान दिया जाता है जो प्रभावशाली हों, यह भी स्वागतयोग्य है। अगर नियामक सीईओ के वेतन का जिम्मा संभालेगा तो बैंक बोर्ड की इससे संबंधित समिति क्या करेगी? 
 
बैंक कैसी प्रतिक्रिया देंगे? संभव है वे वेतन का तयशुदा हिस्सा बढ़ा दें। मेरी समझ कहती है कि मौजूदा वेतन-भत्तों को बचाने के लिए कुछ निजी बैंक सीईओ के तयशुदा वेतन में 50 फीसदी तक का इजाफा करेंगे। यूरोपियन बैंक में ऐसा ही हुआ है।  इससे नियामक का कदम बेमानी हो जाएगा। इससे एक किस्म की आश्वस्ति आ सकती है और किफायत खत्म हो सकती है। शीर्ष पद के लिए उत्साह में कमी आ सकती है। शेयर विकल्प का मूल्यांकन किस प्रकार किया जाएगा? अगर किसी सीईओ को वनिला शेयर (ऐसे शेयर जिन्हें तय समय सीमा में पूर्व निर्धारित कीमत पर बेचा जा सकता है) दिए जाते हैं तो उनका मूल्यांकन आसान होता है और संबंधित अधिकारी को इसका पूर्ण आर्थिक लाभ मिलता है। जबकि इम्प्लायी स्टॉक ऑप्शन प्लान (ईसॉप) में कर्मचारी के पास विकल्प होता है कि वह किसी कंपनी के शेयर भविष्य की तिथि में पूर्व निर्धारित दर पर खरीदे। अगर शेयर का बाजार मूल्य खरीद से अधिक हो तो कर्मचारी उसे बेचकर लाभ कमा सकता है लेकिन अगर वह तय मूल्य से नीचे हो तो कर्मचारी उसे नहीं बेचेगा।
 
निश्चित तौर पर विकल्प का विशुद्घ मूल्य आंकने का एक फॉर्मूला है लेकिन देश के निजी बैंकों का बाजार प्रदर्शन एकीकृत नहीं है। उदाहरण के लिए एचडीएफसी बैंक के कर्मचारियों के पास हमेशा पैसा रहा है क्योंकि कंपनी के शेयरों की कीमत हमेशा ऊंची बनी रही जबकि आईसीआईसीआई बैंक के कर्मचारियों को बीते वर्षों में शायद ही फायदा हुआ हो। येस बैंक के शेयर तो बीते सात महीने में 40 फीसदी तक गिरे हैं। अगर किसी कंपनी के शेयर अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं तो क्या उसके सीईओ को उसके अच्छे काम का लाभ नहीं मिलना चाहिए?
 
नवंबर 2018 में देश की दूसरी सबसे बड़ी टायर निर्माता कंपनी अपोलो टायर्स के प्रवर्तक ओंकार कंवर और उनके बेटे नीरज को वेतन भत्तों में 30 फीसदी कटौती स्वीकार करनी पड़ी क्योंकि अल्पांश हिस्सेदारों ने सालाना आम बैठक में कंपनी के प्रबंध निदेशक के रूप में नीरज की पुनर्नियुक्ति को खारिज कर दिया था। ऐसा भारी वेतन भत्तों की मांंग और कमजोर वित्तीय प्रदर्शन के कारण किया गया।  सीईओ के वेतन पर निर्णय बोर्ड और निवेशकों को लेना चाहिए। जब बोर्ड नाकाम हो तब रिजर्व बैंक को दखल देना चाहिए। केवल बैलेंस शीट का आकार ही इसके निर्धारण की एकमात्र वजह नहीं होना चाहिए। इस काम की जटिलता और चुनौतियों का भी ध्यान रखा जाना चाहिए।
 
स्टॉक की पेशकश ने देश में कई पेशेवरों को उद्यमी में तब्दील किया है, बढिय़ा बैंक तैयार किए हैं और बिखरते कारोबारों को बचाया है। अत्यधिक जोखिम उठाने वालों को हतोत्साहित किया जाना चाहिए और सुशासन में यकीन न करने वालों को दंडित किया जाना चाहिए लेकिन नियामक को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अच्छा प्रदर्शन करने वालों को दिक्कत न हो। अगर ऐसा नहीं हुआ तो हमारे सर्वश्रेष्ठ बैंकर गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों, बीमा कंपनियों, एफएमसीजी और इन्फोटेक क्षेत्र का रुख कर सकते हैं। 
 
अगर हमें अच्छे प्रदर्शन का ध्यान रखना है तो देश में सरकारी बैंकों के सीईओ के वेतन-भत्तों को बिना देरी किए नए सिरे से तय करने की आवश्यकता है। इसे अफसरशाहों के वेतन से अलग करना होगा। कम से कम दो बैंकों में ईसॉप का प्रस्ताव वित्त मंत्रालय के पास वर्षों से लंबित है। क्या किसी ने इसके बारे में सुना है। 

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Friday, March 15, 2019

Hindi Editorial for RRB PO and Clerk 15 March 2019

लक्ष्य में परिवर्तन का हो समुचित आकलन


आज से करीब 25 वर्ष पहले मैंने अपनी डॉक्टरेट की थीसिस में दलील दी थी कि राजकोषीय नीति का इस्तेमाल राज्य के लक्ष्यों में आए बदलावों का आकलन करने में किया जाना चाहिए। इस स्तंभ में भी मैं यही करने जा रहा हूं।  मेरा यह कहना है कि केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर हमारा देश एक विकास राज्य से पूरक या कहें क्षतिपूर्ति वाले राज्य में बदल रहा है। यह बदलाव राजनीतिक स्तर पर भी आ रहा है और कार्यपालिका के स्तर पर भी। चारों ओर यही कोलाहल है कि ऐसे साधन, तकनीक और मॉडल तलाश किए जाएं जहां पैसा सीधे देश के नागरिकों की जेब में डाला जा सके और आर्थिक वृद्घि से जो कुछ हासिल नहीं हो सका है उसकी भरपाई की जा सके। यह बात भी सच है कि भारत राज्य उन लोगों को अच्छी वस्तुएं उपलब्ध करा पाने में विफल रहा है जो इन चीजों को बाजार से नहीं खरीद सके। 
आजादी के बाद से देश की आर्थिक नीति के दूरगामी लक्ष्यों को व्यापक तौर पर इस प्रकार देखा जा सकता है: आत्म निर्भरता और आर्थिक आधुनिकीकरण (1950-1971), गरीबी में कमी (1970-1991), स्थिर आर्थिक वृद्घि और भुगतान संतुलन की सुरक्षा (1991-2003) और उसके पश्चात स्वास्थ्य एवं शिक्षा जैसी चीजों की सार्वजनिक आपूर्ति के साथ वृद्घि। लक्ष्य में यह बदलाव अहम है लेकिन इसे व्यापक तौर पर अब तक विकास राज्य रहे देश के फोकस और जिन बातों पर उसका जोर है, उनमें आए बदलाव के तौर पर दर्ज किया जाता है।
इसे कई राज्यों के सार्वजनिक व्यय के घटक में महसूस किया जा सकता है। इतना ही नहीं हमारी राजनीतिक प्रणाली जो मुख्य तौर पर दो दलीय है, उसके दोनों प्रमुख दल भी राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी ही आर्थिक पेशकश कर रहे हैं। सीधी कोशिश यह है कि सार्वजनिक संसाधनों का प्रयोग करते हुए नकदी को सीधे लोगों के बैंक खातों में डाला जाए। इसके लिए कर कटौती और नकद हस्तांतरण जैसे उपाय अपनाए जा रहे हैं।  मेरी दृष्टि में यह बदलाव इसलिए हुआ क्योंकि पिछले लक्ष्यों को लेकर दो स्तरों पर निराशा देखने को मिली। पहला, भ्रष्टाचार, कमजोर ढंग से लक्षित करना और बेहतर वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति के लिए व्यय होने वाले सार्वजनिक संसाधनों की कम उत्पादकता। इस समस्या को हल करने के लिए तकनीक का इस्तेमाल करने को भी बहुत सीमित सफलता मिली। सार्वजनिक धन का इस्तेमाल अब इस नाकामी की भरपाई के लिए किया जा रहा है, न कि मूल समस्या को दूर करने के लिए। 
दूसरी बात, हमारे देश में वृद्घि असमान इसलिए रही है क्योंकि शीर्ष 10 फीसदी लोगों को निचले तबके के 90 फीसदी लोगों की तुलना में कहीं अधिक कामयाबी हासिल हुई है। इसके अलावा तमाम क्षेत्रों और वर्गों में वृद्घि असमान बनी रही है। इन परिस्थितियों में प्रत्यक्ष हस्तांतरण की दलील इस नाकामी को ढकने के लिए ही है, न कि समस्या को हल करने के लिए।  इन दोनों क्षेत्रों में हाथ लगी निराशा के कारण ही ऐसी तमाम योजनाएं सामने आई हैं जो किसानों, ग्रामीण आबादी या अत्यंत गरीब लोगों को लक्षित करती हैं। परंतु उनका साझा लक्ष्य एक ही है, सरकारी धन को तयशुदा लाभार्थी तक पहुंचाना। 
समकालीन भारत में राजकोषीय नीति का लक्ष्य इन वजहों से बदल गया है। सार्वजनिक व्यय की उत्पादकता कम है और भ्रष्टाचार और कमजोर तरीके से लक्षित किए जाने के कारण इसे दिक्कत आ रही है। इन समस्याओं को हल करने के लिए तकनीक का इस्तेमाल काफी हद तक विफल साबित हुआ है। इसके समांतर वृद्घि की प्रक्रिया भी बहुत हद तक असमानता भरी रही है। ऐसा केवल वृद्घि के संदर्भ में नहीं हुआ है बल्कि इसका संबंध इस बात से भी है कि इसमें किसकी प्रतिभागिता है। ऐसे में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच निरंतर यह भावना बढ़ रही है कि वे उत्पादक समावेशन के जरिये समावेशी वृद्घि के बजाय सार्वजनिक संसाधनों का इस्तेमाल सार्वजनिक वस्तुओं और सेवाओं के लिए जाए। वित्तीय लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए काम करने के बजाय राजकोषीय नीति अब उन लोगों की क्षतिपूर्ति करने का काम कर रही है जिनसे समावेशी विकास का वादा किया गया था। 
विकास राज्य से पूरक राज्य की दिशा में होने वाले इस बदलाव को लेकर किसी भी राजनीतिक या वैचारिक नजरिये से इतर एक अहम राजकोषीय सिद्घांत यह है कि राजकोषीय नीति प्रतिबद्घता की एक विरासत तैयार करती है। हमारे देश में सार्वजनिक व्यय का ऐतिहासिक लक्ष्य व्यय और सार्वजनिक परिसंपत्ति निर्माण की विरासत तैयार करना रहा है। हमारे यहां ढेर सारे सार्वजनिक संस्थान और विकास योजनाएं हैं जिनको बाकायदा तैयार किया गया है। इस्पात संयंत्र से लेकर, विनिर्माण फर्म और विश्वविद्यालय तक ऐसे संस्थानों में आते हैं। सरकारी बैंक और तेल विपणन कंपनियों द्वारा विकास के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए काम करना अब पुराने जमाने की बात हो चुकी है लेकिन अभी भी इन पर सरकार का नियंत्रण है और लक्ष्य बदल जाने के बाद भी वह उन पर व्यय कर रही है। 
हमारे देश में जब राजकोषीय नीति का लक्ष्य बदलता है तब ऐसा कोई ढांचागत समायोजन नहीं किया जाता है जिसके तहत पुराने राजकोषीय लक्ष्यों पर से व्यय को कम करके नए लक्ष्यों पर व्यय में इजाफा किया जाए। व्यापक तौर पर बात करें तो ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ऐसा कोई ढांचा मौजूद ही नहीं होता जिसके अधीन राजकोषीय नीति का निर्माण और क्रियान्वयन किया गया होता है। मध्यम अवधि के राजकोषीय ढांचे को अगर बजट निर्माण और क्रियान्वयन की प्रक्रिया में शामिल रखा जाए तो दोनों स्तरों पर सरकारों को यह राजकोषीय बदलाव करने में आसानी होती है। इस प्रकार बिना राजकोषीय समावेशन के लक्ष्य से समझौता किए राजकोषीय गुंजाइश सुनिश्चित करने का अवसर मिलता है। राजकोषीय गुंजाइश कम होने से कई खर्च सीमित हुए हैं। हमारे यहां न अच्छे अस्पताल हैं और न ही पर्याप्त लड़ाकू विमान। यहां तक कि बहुत अच्छा सार्वजनिक परिवहन तक नहीं है। 
हाल की घोषणाओं से लगता है कि सरकार का प्राथमिक लक्ष्य क्षतिपूर्ति का पुनर्वितरण हो गया है और राजनेता और कार्यपालिका दोनों इस पर सहमत हैं। ऐसे में हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि अतीत के व्यय की विरासत इस नए लक्ष्य को प्रभावित न करे।

Wednesday, March 13, 2019

Hindi Editorial for RRB PO and Clerk 14th March 2019

भारत में एफडीआई का बेहतर माध्यम-सिंगापुर या मॉरीशस?

भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) आकर्षित करने के मामले में मोदी सरकार के प्रदर्शन की चमक थोड़ी फीकी हो चुकी है। पिछले वित्त वर्ष में कुल एफडीआई प्रवाह 2016-17 की तुलना में महज 1.25 फीसदी ही बढ़ा था। चालू वित्त वर्ष में विदेशी मुद्रा के प्रवाह में गिरावट आने का अनुमान जताया गया है। वर्ष 2018-19 की पहली तीन तिमाहियों में कुल एफडीआई प्रवाह पिछले साल की समान अवधि की तुलना में 3 फीसदी गिरावट के साथ 46.62 अरब डॉलर रहा। अगर चौथी तिमाही में भी यही रुझान रहा तो यह मोदी सरकार के कार्यकाल में विदेशी मुद्रा प्रवाह में सालाना गिरावट का पहला मौका होगा।
मोदी शासन के पहले दो वर्षों में विदेशी मुद्रा प्रवाह क्रमश: 25 फीसदी और 23 फीसदी बढ़ा था। वहीं 2016-17 में वृद्धिï दर थोड़ा सुस्त पड़ते हुए 8 फीसदी रही। इस लिहाज से वर्ष 2017-18 में एफडीआई वृद्धि दर में सुस्ती आना और वर्ष 2018-19 में नकारात्मक रहने का अनुमान अपने आप में अहम है। 
विदेशी निवेश के मोर्चे पर मोदी सरकार का प्रदर्शन 2009-10 से लेकर 2013-14 के दौरान मनमोहन सरकार के प्रदर्शन से बेहतर नजर आता है। मनमोहन सरकार के उन पांच वर्षों में से तीन साल एफडीआई प्रवाह में काफी कमी आई थी। वर्ष 2009-10 में 10 फीसदी, 2010-11 में 8 फीसदी और 2012-13 में 26 फीसदी की बड़ी गिरावट दर्ज की गई थी। हालांकि 2011-12 में 34 फीसदी की जोरदार तेजी आई थी जबकि 2013-14 में 5 फीसदी बढ़त रही थी। मनमोहन सरकार के अंतिम साल 2013-14 का कुल 36 अरब डॉलर का एफडीआई 2009-10 के 37.7 अरब डॉलर के प्रवाह से भी कम रहा था। इस तरह मोदी सरकार पिछली सरकार की तुलना में बेहतर प्रदर्शन करती दिख रही है। 
लेकिन एफडीआई के मामले में इसके प्रदर्शन के कुछ अन्य पहलू भी हैं जिन पर गहरी नजर डालने की जरूरत है। एफडीआई आकर्षित करने के मामले में सेवा क्षेत्र अब भी सबसे बड़ी भूमिका निभा रहा है। एफडीआई की सरकारी परिभाषा के मुताबिक वित्तीय इकाइयां, बैंक, बीमा सेवाएं, बिजनेस आउटसोर्सिंग, शोध एवं विकास, कूरियर सेवाएं, टेक्नोलजी फर्म और परीक्षण एवं विश्लेषण कंपनियां सेवा क्षेत्र में आती हैं। वर्ष 2017-18 की गिरावट के बाद सेवा क्षेत्र में फिर से एफडीआई प्रवाह बढ़ा है। चालू वित्त वर्ष की पहली तीन तिमाहियों में सेवा क्षेत्र में 6.59 अरब डॉलर का विदेशी निवेश आया है। कंप्यूटर सॉफ्टवेयर एवं हार्डवेयर भी ऐसा क्षेत्र है जिसका प्रदर्शन काफी हद तक संतुलित रहा है। इस क्षेत्र में एफडीआई प्रवाह अप्रैल-दिसंबर 2018 के दौरान करीब 5 अरब डॉलर रहा है जबकि 2017-18 के समूचे वित्त वर्ष में यह 6.15 अरब डॉलर था। कारोबार एवं दूरसंचार दो अन्य क्षेत्र हैं जो बड़े पैमाने पर एफडीआई आकर्षित करते रहे हैं। इनकी तुलना में निर्माण एवं फार्मा क्षेत्र विदेशी निवेश के मामले में काफी सुस्त रहे हैं। 
विनिर्माण क्षेत्र में वाहन उद्योग का प्रदर्शन काफी हद तक स्थिर रहा है। 2018-19 की पहली तीन तिमाहियों में 2.1 अरब डॉलर के विदेशी निवेश के साथ इस क्षेत्र ने 2017-18 के कुल एफडीआई प्रवाह को पीछे छोड़ दिया है। इससे लगता है कि एफडीआई आकर्षित करने के मामले में वाहन उद्योग का प्रदर्शन बरकरार है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि सेवा क्षेत्र ही भारत के एफडीआई प्रवाह में अग्रणी कारक है। अर्थव्यवस्था के लिए इसकी अपनी जटिलताएं हैं। सेवा क्षेत्र आम तौर पर कुशल कामगारों के लिए ही अधिक मुफीद है और यह कृषि कामगारों को बड़ी संख्या में नहीं खपा सकता है।
एफडीआई प्रवाह के आंकड़ों से एक और तथ्य का पता चलता है। भारत के लिए एफडीआई के दो सबसे बड़े स्रोत मॉरीशस और सिंगापुर हैं। गत 18 वर्षों में भारत आने वाली कुल विदेशी मुद्रा का आधे से भी बड़ा हिस्सा इन देशों का है। इस दौरान मॉरीशस और सिंगापुर से कुल मिलाकर 2.1 लाख करोड़ डॉलर निवेश भारत में हुआ। दरअसल इन दोनों देशों में मिलने वाले कर लाभों के चलते ये कंपनियों के लिए पसंदीदा निवेश माध्यम रहे हैं। लेकिन वर्ष 2017 के बाद से निवेश पर मिलने वाले कर लाभों में चरणबद्ध कटौती शुरू हो चुकी है। इसके पीछे मंशा कर चोरी रोकने, राजस्व क्षति कम करने और निवेश प्रवाह दुरूस्त करने की है। अगस्त 2016 में भारत ने मॉरीशस के साथ संशोधित कर संधि की अधिसूचना जारी की थी जिसमें मॉरीशस के रास्ते निवेश आने पर पूंजीगत लाभ कर लगाने का प्रावधान था। 1 अप्रैल, 2017 से मॉरीशस से आने वाले ऐसे निवेश पर तत्कालीन घरेलू दर की आधी दर से पूंजीगत लाभ कर लगाया गया और 1 अप्रैल, 2019 से यह रियायत भी हट जाएगी।
मार्च 2017 में सरकार ने सिंगापुर से आने वाले निवेश पर भी शुल्क लगाने वाली ऐसी ही अधिसूचना जारी की थी। हालांकि इस प्रावधान के असर को कम करने के लिए सरकार ने 1 अप्रैल, 2017 से 50 फीसदी दर से शुल्क ही लगाया। लेकिन 1 अप्रैल, 2019 से पूंजीगत लाभ कर पूरी तरह लगने लगेगा। बहरहाल शुल्क लगने के बाद भी सिंगापुर या मॉरीशस से होने वाले विदेशी निवेश पर 2017-18 में कोई खास असर नहीं देखा गया। उस साल मॉरीशस से करीब 16 अरब डॉलर का निवेश आया जो 2016-17 से एक फीसदी अधिक था। वहीं सिंगापुर से आने वाला निवेश 40 फीसदी बढ़कर 12 अरब डॉलर पर पहुंच गया। वर्ष 2018-19 की पहली तीन तिमाहियों का रुझान देखें तो सिंगापुर के रास्ते आने वाला निवेश बढ़ा है जबकि मॉरीशस से आने वाले निवेश में बड़ी सुस्ती देखी जा रही है। 
लगता है कि नए कर कानून का सिंगापुर पर नाममात्र का असर पड़ा है लेकिन मॉरीशस बुरी तरह प्रभावित हुआ है। सिंगापुर से होने वाला विदेशी प्रवाह तो असल में बढ़ गया है। वैसे सही तस्वीर 2019-20 के आंकड़ों से ही साफ हो पाएगी जब इन दोनों देशों से आने वाले विदेशी निवेश पर सौ फीसदी पूंजीगत लाभ कर लगने लगेगा। वैसे यह सवाल खड़ा होता है कि क्या सिंगापुर को लाभ मॉरीशस की कीमत पर हुआ है?

5th set of Puzzles and Seating arrangement for PO and AAO







4th set Puzzles and Seating arrangement for PO









Tuesday, March 12, 2019

The Hindu Editorial 13 March 2019

Final showdown: on IS

The IS is facing defeat, but the search for a political solution in Syria should continue

The Islamic State, which at its peak controlled territories straddling(Mount) the Iraq-Syria border of the size of Great Britain, is now fighting for half a square kilometre in eastern Syria. The Syrian Democratic Forces, the Kurdish-led rebel group assisted by the U.S., has effectively laid siege to Baghouz, the eastern Syrian village where about 500 IS jihadists along with 4,000 women and children are caught. When the IS lost bigger cities such as Raqqa and Deir Ezzor in eastern Syria, militants moved to Baghouz and the deserts in the south. After the SDF moved to Baghouz, several civilians fled(run away) the village. The Syrian Observatory for Human Rights estimates that nearly 59,000 people have left IS-held territory since December, and at least 4,000 jihadists have surrendered since February. Both President Donald Trump and the SDF commanders say victory against the IS is imminent(close). Victory in Baghouz will also mean the IS’s territorial caliphate is shattered. Since the battle for Kobane in 2015, which marked the beginning of the end of the IS, Syrian Kurdish rebels(विद्रोही) have been in the forefront(head) of the war. Naturally, the SDF would claim the final victory against the IS.

However, the liberation of Baghouz or the destruction of the territorial caliphate does not necessarily mean that the IS has been defeated. It is basically an insurgent-jihadist group. It has established cells, especially in Syria and Iraq, which have continued to carry out terror attacks even as IS territories kept shrinking. The group has a presence in Syria’s vast deserts, a tactic its predecessor, al-Qaeda in Iraq, successfully used when it was in decline during 2006-2011 after its leader Abu Musab al-Zarqawi was killed by the U.S. When the Syrian civil war broke, the remnants(remain) of AQI found an opportunity for revival(comeback) and rebranded themselves as the Jabhat al-Nusra, al-Qaeda’s branch in Syria. The IS was born when al-Nusra split. The U.S., the Kurdish rebels, the Syrian government and other stakeholders in the region should be mindful of the geopolitical and sectarian minefields that groups such as the IS could exploit for their re-emergence. Mr. Trump has already announced the withdrawal of U.S. troops from Syria. The Turkish government of President Recep Tayyip Erdoğan is wary of the rapid rise of the Syrian Kurds, who are organisationally and ideologically aligned with Kurdish rebels on the Turkish side. The Syrian regime, on its part, has vowed to re-establish its authority over the Kurdish autonomous region in the northeast. If Turkey and Syria attack Kurdish rebels, who were vital in the battle against the IS, that would throw northeastern Syria into chaos again, which would suit the jihadists. To avoid this, there must be an orderly U.S. withdrawal and a political solution to the Syrian civil war.

Hindi Editorial for RRB PO and Clerk 13th March 2019

भारत के लिए क्वाड गुट अभी खास उपयोगी नहीं

हाल में भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया का एक गुट बनाने का मसला सामरिक जगत में काफी चर्चा का विषय रहा है। असल में, इन देशों के अधिकारियों का एक समूह निचले स्तर पर सक्रिय भी हो चुका है। कुछ लोग यह दलील देते हैं कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में इन चारों देशों के एक-दूसरे से मेल खाने वाले सामरिक एवं सुरक्षा हित हैं लेकिन कई लोग इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं हैं कि ऐसे किसी गुट के गठन के लिए जरूरी तालमेल इन देशों के बीच स्थापित हो चुका है।   इस चौकड़ी की संकल्पना सामुद्रिक क्षेत्र में सहयोग से संबंधित है। इसकी शुरुआत 1990 के दशक में उस समय हुई थी जब पूर्व सोवियत संघ के पतन के बाद भारत-अमेरिका के रिश्ते सुधरने शुरू हुए। दोनों देशों के संपर्क को गति देने का काम रक्षा सहयोग ने किया। इसी क्रम में भारत और अमेरिका की नौसेनाओं ने 'मालाबार' नाम से संयुक्त अभ्यास करना शुरू किया। समय बीतने के साथ दोनों देशों के बीच समुद्री सहयोग गहरा और मजबूत होता गया। स्थिति यहां तक पहुंच गई कि विमानवाहक पोत और पनडुब्बियों की तैनाती भी बिना किसी हिचक के होने लगी। एक दशक पहले जापान को भी इस सैन्य अभ्यास का हिस्सा बनने के लिए आमंत्रित किया गया और फिर ऑस्ट्रेलिया भी इसका अंग बन गया। उस समय पहली बार 'क्वाड' (चौकड़ी) शब्द का इस्तेमाल किया गया।
 
चीन ने बड़ी नौसैनिक शक्तियों की इस गुटबंदी के खिलाफ एतराज जताया था। यहां तक कि भारत भी इस धारणा को लेकर कुछ संंकोच रखता था। इस वजह से कई वर्षों तक 'मालाबार' तीन देशों के नौसैनिक अभ्यास का ही सालाना आयोजन बना रहा। एक साल इसका आयोजन हिंद महासागर की बंगाल की खाड़ी में होता रहा तो अगले साल पूर्वी एशिया के समुद्र में तीनों नौसेनाएं अभ्यास करती रहीं। इसी अवधि में भारत-अमेरिका और भारत-जापान संपर्क में राजनीतिक संपर्क भी तेज हुए। दोनों पक्षों के रक्षा एवं विदेश मंत्रियों की बैठक (2 प्लस 2) भी हर साल होने लगी।
 
ऐसे में यह सवाल खड़ा होना लाजिमी है कि इन देशों के इस तरह से एक-दूसरे से जुडऩे की क्या जरूरत पड़ गई? बाहरी प्रेक्षकों के लिए यह सवाल प्रासंगिक है। आखिर भारत कई अन्य देशों केे साथ द्विपक्षीय स्तर पर रक्षा सहयोग करता है और आसियान जैसे बहुपक्षीय समूहों के साथ के भी सक्रिय रूप से जुड़ा हुआ है। वह दूसरे समूहों ब्रिक्स, आरआईसी और एससीओ का भी हिस्सा रहा है। लेकिन इनमें से किसी भी समूह के सामरिक निहितार्थ भारत-अमेरिका-जापान समूह की तरह नहीं हैं।
 
भारत और अमेरिका के लिए इस पहलू को हर कोई देख सकता है। अमेरिका के लिए हिंद-प्रशांत क्षेत्र प्राथमिक चिंता का विषय रहा है और अगर हिंद महासागर भारत के लिए प्राथमिकता रखता है तो प्रशांत क्षेत्र से जुड़े मामले भी अहमियत रखते हैं। इसकी वजह यह है कि भारत का आधे से भी अधिक कारोबार समुद्र के इसी रास्ते से होता है और यह बढ़ ही रहा है। दुनिया के दो बड़े लोकतांत्रिक देश बड़े व्यापारिक साझेदार हैं और अमेरिका में भारतीय मूल के लोगों की अच्छी-खासी आबादी भी है। भारत के उलट अमेरिका का चीन के साथ कोई सीमा विवाद नहीं है लेकिन व्यापार के मोर्चे पर दोनों देशों में गहरे मतभेद रहे हैं। इसके अलावा दक्षिण चीन सागर एवं पूर्वी चीन सागर में चीन का आक्रामक रुख और अमेरिका के बरक्स खुद को महाशक्ति के तौर पर खड़ा करने की उसकी चाहत भी है।
 
इस स्थिति में भारत और अमेरिका का रक्षा सहयोग में करीबी आना काफी मायने रखता है। आज के समय में अमेरिका भारत को सैन्य साजोसामान आपूर्ति करने के मामले में सबसे आगे है। इस द्विपक्षीय संबंध में कोई कमजोरी नजर नहीं आती है। हालांकि रूस और ईरान को लेकर अमेरिकी नीतियों के चलते उन देशों के साथ हमारे स्वस्थ रिश्ते को कायम रख पाना कभी-कभी मुश्किल भी हो जाता है। हालांकि हालिया घटनाएं बताती हैं कि ये चुनौतियां ऐसी नहीं है कि उनसे पार न पाया जा सके। कुल मिलाकर, दोनों देशों के सामरिक हित काफी स्पष्ट हैं।
 
अमेरिका का सैन्य सहयोगी और अपने आप में एक बड़ी आर्थिक शक्ति जापान भी इसका हिस्सा बन जाता है। हालांकि भारत और जापान के बीच कारोबार भी बहुत अधिक नहीं हुआ है और न ही इनका रक्षा सहयोग मालाबार अभ्यास से आगे बढ़ पाया है और सैन्य उपकरणों के आदान-प्रदान में भी तब्दील नहीं हुआ है। फिर भी सामरिक मुद्दे इनके रिश्ते को अलग ही श्रेणी में रखते हैं। मसलन, जापान अपनी तेल जरूरतों के लिए खाड़ी देशों से हिंद महासागर के रास्ते होने वाले आयात पर निर्भर है। तेल लाने वाले जहाज चीन के प्रभाव वाले दक्षिण चीन एवं पूर्वी चीन सागर से होकर गुजरते हैं। इस इलाके में जापान अपने हितों की रक्षा अमेरिकी समर्थन से कर सकता है लेकिन हिंद महासागर क्षेत्र में अपने हितों की रक्षा के लिए उसे भारत की मदद की जरूरत है।
 
इसके अलावा भारत की ही तरह जापान का भी चीन के साथ पूर्वी चीन सागर में सीमा विवाद चल रहा है। जापान के साथ कारोबारी रिश्ता परवान चढऩे के बावजूद चीन उसे एक विरोधी देश के तौर पर ही देखता है। इन दोनों कारणों से जापान के लिए भारत हिंद-प्रशांत मामलों में एक उपयोगी साझेदार बन जाता है। इसके साथ अगर दक्षिणी चीन सागर में भारत के निहित हितों और जापान की अहम सामुद्रिक क्षमता को भी ध्यान में रखें तो दोनों देशों के साझा हित पूरी तरह साफ हो जाते हैं। वैसे जापान की गिनती अब भी अमेरिका जैसे सामरिक साझेदार के तौर पर नहीं की जा सकती है लेकिन उसमें इस त्रिकोणीय संबंध को सशक्त करने की पूरी क्षमता है। ऐसे में इस पूर्वी एशियाई देश को भी अपने साथ रखना वांछनीय है।
 
इस चौकड़ी का चौथा हिस्सा ऑस्ट्रेलिया है। हालांकि अभी तो वह केवल औपचारिक तौर पर ही इस समूह का हिस्सा है। ऑस्ट्रेलिया के साथ हमारा कारोबार बहुत अधिक नहीं है। वह चीन का सबसे बड़ा कोयला आपूर्तिकर्ता देश है और उसका चीन के साथ किसी भी तरह का सीमा या अन्य विवाद भी नहीं है। हालांकि ऑस्ट्रेलिया अमेरिका का सैन्य सहयोगी देश है लेकिन भारत के नजरिये से देखें तो ऑस्ट्रेलिया और भारत के हितों में समान बातें बहुत कम हैं। जहां तक निर्बाध समुद्री परिवहन का सवाल है तो वह कारोबार के लिए नौवहन पर निर्भर किसी भी देश का बुनियादी हित होता है।
 
केवल इतने भर से ऑस्ट्रेलिया के साथ भरोसेमंद सामरिक रिश्ते भारत के लिए अपरिहार्य नहीं हो जाते हैं। हालांकि ऑस्ट्रेलिया हिंद महासागर क्षेत्र में एक अहम नौसैनिक ताकत है और उसके साथ संबंध रखना जरूरी है लेकिन उतने भर से वह इस चौकड़ी में बड़ी भूमिका निभाने का हकदार नहीं बन जाता है।  लेकिन भारत, अमेरिका और जापान की स्थिति एकदम अलग है। ये देश वर्ष 2030 तक न केवल दुनिया की शीर्ष चार में से तीन अर्थव्यवस्थाओं में शामिल होंगे बल्कि हरेक भागीदार देश को यह लगता है कि दूसरे देश उसके सामरिक हितों को बढ़ाने में मददगार हो सकता है। इनमें से हरेक देश के लिए चीन की बढ़ती शक्ति आकांक्षाएं चिंता का विषय हैं।
 
निस्संदेह, इस गठबंधन को लेकर जाहिर की गई खामियों के आने वाले वर्षों में दूर हो जाने की संभावना है। और इस रिश्ते को आगे संवारने की भी जरूरत होगी। 'क्वाड' गठजोड़ आगे जारी रह सकता है लेकिन एक सामरिक जरूरत के तौर पर अभी इस अवधारणा का वक्त नहीं आया है।

Source Business Standard

Monday, March 11, 2019

Hindi Editorial for RRB PO and Clerk

पोषण, प्रकृति और आजीविका से बना रहे खानपान का नाता

सही खानपान के अभाव में गरीब देशों में स्वास्थ्य समस्याएं बनी रहती हैं। लोगों के पास जैसे ही थोड़ा पैसा आने लगता है उन्हें वक्त पर भोजन मिलने लगता है लेकिन वे स्वास्थ्य मामले में लाभ की स्थिति भी गंवाने लग जाते हैं। दरअसल वे नमक, चीनी और वसा की अधिकता वाले प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों का सेवन करने लगते हैं जो उन्हें मोटा और बीमार बनाने लगता है। हालांकि जब समाज में समृद्धि काफी बढ़ जाती है तब उन्हें सही खानपान से होने वाले लाभों का अहसास होता है। यह विडंबना ही है कि भारत में ये सारी स्थितियां एक साथ घट रही हैं। कुपोषण की बड़ी चुनौती के साथ ही हम मोटापे और उससे जुड़ी मधुमेह एवं उच्च रक्तचाप की बीमारियों का भी सामना कर रहे हैं। लेकिन हमें इस मामले में थोड़ी बढ़त भी हासिल है कि हम सही खानपान की अपनी संस्कृति अभी तक भूले नहीं हैं। अब भी पोषण, प्रकृति और आजीविका के तार जुड़े हुए हैं। करोड़ों भारतीयों को अब भी थोड़ा भोजन ही मिलता है क्योंकि ये अधिकतर गरीब हैं। हमारे सामने यह चुनौती और सवाल है कि इनके पास पैसे आने पर भी क्या वे पहले की तरह प्रकृति से मिले खाद्यान्नों से बना पौष्टिक भोजन ही करते रहेंगे? यह असली परीक्षा है।
 
लेकिन ऐसा करने के लिए हमें अपनी खानपान की आदतें ठीक करनी होंगी। हमें समझना होगा कि पैसे आने पर गलत खानपान से अपनी स्वास्थ्य बढ़त को गंवा देना महज आकस्मिक नहीं है। ऐसा प्रसंस्कृत खाद्य उद्योग के कारण है क्योंकि सरकारों ने पोषण के मामलों में नियमन बंद कर दिया है। इस तरह उन्होंने शक्तिशाली खाद्य उद्योग को हमारे जीवन कारोबार के सबसे अहम तत्त्व खानपान का नियंत्रण अपने हाथ में लेने का मौका दे दिया है। हमें यह समझने की भी जरूरत है कि गलत खानपान का संबंध कृषि के बदलते तरीकों से जुड़ा हुआ है। इस तरह खाद्य कारोबार एकीकृत एवं उद्योग का रूप ले लेता है। यह मॉडल सस्ते भोजन की आपूर्ति पर बना हुआ है जिसमें रासायनिक पदार्थ मौजूद होते हैं। नाम भले ही बदल जाए लेकिन खानपान में मौजूद कीटनाशक एवं एंटीबॉडी का बस स्वरूप ही बदलता है। 
 
दरअसल हमें कृषि वृद्धि के ऐसे मॉडल की जरूरत है जो स्थानीय स्तर पर उपजने वाले बढिय़ा खाद्यान्नों को अहमियत दे। इस मॉडल में पहले कीटनाशकों का इस्तेमाल कर उससे सबक सीखने की प्रवृत्ति से परहेज किया जाएगा। भले ही इस मॉडल को अपनाना मुश्किल है लेकिन ऐसा करने से ही हमें पोषणयुक्त आहार मिलने के साथ आजीविका की सुरक्षा भी मिल सकेगी। फिर भी खाद्य सुरक्षा व्यवसाय का डिजाइन ऐसा है कि साफ-सफाई एवं मानकों पर ध्यान दिया जाए। लेकिन नियमन के लिए खाद्य निरीक्षकों की जरूरत पडऩे से निगरानी की लागत बढ़ जाती है। विडंबना है कि इस मॉडल में वही चीज बाहर रह जाती है जो हमारे शरीर और सेहत के लिए सबसे अच्छी है, यानी छोटे किसान और स्थानीय खाद्य कारोबार। हमारे पास बड़ा कृषि-कारोबार बचा रह जाता है जिसकी हमें जरूरत ही नहीं होती है।
 
लेकिन इसी के साथ हमें गलत तरह के खानपान के खिलाफ संरक्षण की भी जरूरत है। सरकारें यह नहीं कह सकती हैं कि प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ का सेवन निजी पसंद का मामला है। सरकारें किनारे खड़े रहते हुए उद्योग जगत को प्रसंस्कृत उत्पाद के सेवन के लिए उपभोक्ताओं को लुभाते एवं मनाते हुए नहीं देखती रह सकती है। लोग जिसे भोजन मानते हैं असल में वह जंक फूड और सेहत के लिए नुकसानदायक है। भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) दो प्रमुख नियमों के प्रस्ताव पर बैठा हुआ है। किसी भी खाद्य उत्पाद को 'जंक' श्रेणी में रखना और बच्चों के खाद्य उत्पादों में पौष्टिक एवं स्वास्थवद्र्धक वस्तुओं को जगह देने के लिए स्कूलों को सलाह देने के नियम शामिल हैं।
 
यह विलंब ताकतवर एवं संगठित खाद्य प्रसंस्कृत उद्योग के चलते हो रहा है। यह उद्योग नहीं चाहता है कि डिब्बाबंद उत्पादों के पैक पर चीनी, नमक या वसा की मात्रा से संबंधित जानकारी अंकित की जाए। ऐसा होने पर पता चल जाएगा कि हम निर्धारित दैनिक सीमा से कितना अधिक चीनी, नमक या वसा खा ले रहे हैं। इस मसौदा अधिसूचना का मकसद यह सुनिश्चित करना था कि उपभोक्ताओं के तौर पर हमें पता चल जाए कि अपने पसंदीदा सॉफ्ट ड्रिंक की एक बोतल पीने से दो दिन के बराबर चीनी गटक जाएंगे। इसी तरह हमें यह भी पता चल जाएगा कि अपने बच्चों को नूडल्स का एक कटोरा परोसने का मतलब है कि उस दिन बाकी समय उन्हें नमक-रहित उबली हुई सब्जियां ही देनी होंगी। वहीं लेबलिंग को लेकर जारी मसौदा अधिसूचना में आहार मानकों के बरक्स नमक, चीनी और वसा की मात्रा की जानकारी देने की बात कही गई है। इससे हम एक उपभोक्ता के तौर पर कोई भी प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद इस्तेमाल करने का फैसला सटीक जानकारी के आधार पर कर पाएंगे। लेकिन ऐसा करना उस उद्योग के लिए खासा असुविधाजनक हो जाएगा जो जंक खाद्य उत्पाद बनाता है और उनमें किसी तरह की पौष्टिकता भी नहीं होती है।
 
इतना ही काफी नहीं है। भारत में हमें खानपान की अपनी समृद्ध परंपरा का जश्न मनाने की भी जरूरत है जिसमें रंग, स्वाद, मसालों और प्रकृति की विविधता है। हमें यह जानने की जरूरत है कि अगर जंगल में जैव-विविधता खत्म होती है तो हमारे प्लेट में रखे भोजन की गुणवत्ता भी कम हो जाएगी। फिर भोजन निजी पसंद का मामला नहीं रह जाएगा। यह सभी की पसंद एवं स्वाद के लिहाज से बना पैकेज रह जाएगा। आज यही हो रहा है जहां हम प्लास्टिक कैन से प्लास्टिक फूड खा रहे हैं।  हम जो खाते हैं और किसलिए खाते हैं, के बीच रिश्ता जोडऩे की जरूरत है। अगर हम स्थानीय पकवानों के बारे में जानकारी खोते जाएंगे तो हम स्वाद एवं सुगंध के अलावा भी कुछ गंवाएंगे। हम जिंदगी भी गंवा देते हैं और हमारा भविष्य भी चपेट में आ जाता है। 
Source Business Standard

The Hindu Editorial 12 march 2019

Central banks are reversing the direction of their policies in a seemingly coordinated bid

Over the last few days, U.S. Federal Reserve Chairman Jerome Powell has been trying to allay fears that it will continue to raise interest rates notwithstanding conditions in the economy. Many, including President Donald Trump, have been quite critical of the Fed raising rates despite a slowing economy and inflation staying well below its official target of 2%. In fact, many have argued that the gradual but persistent raising of rates may be the reason behind the slowdown in U.S. growth and the lacklustre inflation numbers. The American economy created a mere 20,000 jobs in February, the slowest growth in jobs in well over a year, and GDP growth in the coming quarters is expected to slow considerably from the rate of 3.4% in the third quarter last year. On Sunday, however, Mr. Powell termed the current interest rate level as “appropriate”, and noted that the Fed does “not feel any hurry” to raise rates further. The Fed Chairman’s remarks come around the tenth anniversary of the historic bull market in U.S. stocks, which began in March 2009 after policy rates were cut aggressively in order to fight the recession. This marks a significant change from Mr. Powell’s hawkish policy stance since taking over last year.

But right now it is not just the Fed that has put the brakes on the normalisation of monetary policy through a gradual tightening of short-term interest rates. As economic conditions in Europe and Asia begin to deteriorate, central banks have been quick to turn more dovish. European Central Bank President Mario Draghi last week announced that rates in Europe will be kept low until next year and offered to lend cheaply to European banks. The People’s Bank of China has promised further monetary stimulus measures to stem the fall in growth, and the Reserve Bank of India has started to cut interest rates as growth has slowed down each successive quarter this fiscal ahead of the general election. It should thus be obvious by now that central banks around the world are reversing the direction of their policies in what seems to be a coordinated effort to avoid a global growth slowdown. The brakes applied to the raising of interest rates by the Fed allows other central banks to lower their own policy rates and boost growth without the fear that disruptive capital flows could wreak havoc on their economies. While such coordinated monetary policy can certainly prevent slowdowns, it also raises the risk of extended periods of low interest rates leading to more destructive bubbles.

Sunday, March 10, 2019

The Hindu Editorial 11/3/2019

Essar Steel case has clarified many aspects of the Insolvency and Bankruptcy Code process

oval of ArcelorMittal’s bid for the insolvent Essar Steel Ltd. is significant for several reasons. First, the ₹42,000-crore bid will be the largest single recovery of debt under the fledgling Insolvency and Bankruptcy Code (IBC) enacted in 2016. Assuming that the original resolution plan submitted to the NCLT stands, the secured lenders will manage to recover about 85% of their dues. The 15% haircut that they will suffer should be seen against the extraordinarily high amount of over ₹49,000 crore that is due from Essar Steel. Second, the case, which took 583 days to resolve, compared to the 270 days provided under the Code, has tested several aspects of the law and set important precedents for the future. Among the aspects that have been clarified during the long resolution process for Essar Steel are the eligibility of those who have defaulted in repaying their borrowings elsewhere to bid, the time-limits for bidding and the place of unsecured, operational creditors under the resolution mechanism. Finally, this was seen as a marquee case for the IBC, given the high profile of the company and its promoters, and the amount at stake. The battle royal between multinational players to acquire the insolvent company was proof, if any were needed, of the quality and importance of the underlying asset. In the event, the successful culmination of the Essar Steel case will be a big leg-up for the insolvency resolution process that is less than three years old.
To be sure, though the NCLT has given the go-ahead, the last word on the subject may not have been heard as the existing promoters could go in appeal against the verdict. The Code provides for an appeal to the National Company Law Appellate Tribunal and then to the Supreme Court, and it is unlikely that the promoters, who bid a much higher ₹54,389 crore, will let go without a fight. The banks, though, will be hoping that the process ends in the next couple of weeks as they would want to account for the receipts from the resolution process within this financial year. After all, only four cases (excluding Essar Steel) out of the initial list of 12 big defaulters referred by the Reserve Bank of India for resolution back in June 2017 have been successfully resolved till now. Insolvency and Bankruptcy Board of India data also point to a pile-up of cases in the various benches of the NCLT. As many as 275 companies, representing 30% of the total of 898 undergoing resolution, have exceeded the 270-day limit set for resolution under the Code. This can be partly explained by the attempt of promoters to tie down the process through appeals at every stage, but the fact is that there is a need for more benches of the NCLT to clear the pile-up. The government would do well to look into this issue.

Friday, March 1, 2019

LIC AAO Recruitment 2019


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