लक्ष्य में परिवर्तन का हो समुचित आकलन
आज से करीब 25 वर्ष पहले मैंने अपनी डॉक्टरेट की थीसिस में दलील दी थी कि राजकोषीय नीति का इस्तेमाल राज्य के लक्ष्यों में आए बदलावों का आकलन करने में किया जाना चाहिए। इस स्तंभ में भी मैं यही करने जा रहा हूं। मेरा यह कहना है कि केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर हमारा देश एक विकास राज्य से पूरक या कहें क्षतिपूर्ति वाले राज्य में बदल रहा है। यह बदलाव राजनीतिक स्तर पर भी आ रहा है और कार्यपालिका के स्तर पर भी। चारों ओर यही कोलाहल है कि ऐसे साधन, तकनीक और मॉडल तलाश किए जाएं जहां पैसा सीधे देश के नागरिकों की जेब में डाला जा सके और आर्थिक वृद्घि से जो कुछ हासिल नहीं हो सका है उसकी भरपाई की जा सके। यह बात भी सच है कि भारत राज्य उन लोगों को अच्छी वस्तुएं उपलब्ध करा पाने में विफल रहा है जो इन चीजों को बाजार से नहीं खरीद सके।
आजादी के बाद से देश की आर्थिक नीति के दूरगामी लक्ष्यों को व्यापक तौर पर इस प्रकार देखा जा सकता है: आत्म निर्भरता और आर्थिक आधुनिकीकरण (1950-1971), गरीबी में कमी (1970-1991), स्थिर आर्थिक वृद्घि और भुगतान संतुलन की सुरक्षा (1991-2003) और उसके पश्चात स्वास्थ्य एवं शिक्षा जैसी चीजों की सार्वजनिक आपूर्ति के साथ वृद्घि। लक्ष्य में यह बदलाव अहम है लेकिन इसे व्यापक तौर पर अब तक विकास राज्य रहे देश के फोकस और जिन बातों पर उसका जोर है, उनमें आए बदलाव के तौर पर दर्ज किया जाता है।
इसे कई राज्यों के सार्वजनिक व्यय के घटक में महसूस किया जा सकता है। इतना ही नहीं हमारी राजनीतिक प्रणाली जो मुख्य तौर पर दो दलीय है, उसके दोनों प्रमुख दल भी राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी ही आर्थिक पेशकश कर रहे हैं। सीधी कोशिश यह है कि सार्वजनिक संसाधनों का प्रयोग करते हुए नकदी को सीधे लोगों के बैंक खातों में डाला जाए। इसके लिए कर कटौती और नकद हस्तांतरण जैसे उपाय अपनाए जा रहे हैं। मेरी दृष्टि में यह बदलाव इसलिए हुआ क्योंकि पिछले लक्ष्यों को लेकर दो स्तरों पर निराशा देखने को मिली। पहला, भ्रष्टाचार, कमजोर ढंग से लक्षित करना और बेहतर वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति के लिए व्यय होने वाले सार्वजनिक संसाधनों की कम उत्पादकता। इस समस्या को हल करने के लिए तकनीक का इस्तेमाल करने को भी बहुत सीमित सफलता मिली। सार्वजनिक धन का इस्तेमाल अब इस नाकामी की भरपाई के लिए किया जा रहा है, न कि मूल समस्या को दूर करने के लिए।
दूसरी बात, हमारे देश में वृद्घि असमान इसलिए रही है क्योंकि शीर्ष 10 फीसदी लोगों को निचले तबके के 90 फीसदी लोगों की तुलना में कहीं अधिक कामयाबी हासिल हुई है। इसके अलावा तमाम क्षेत्रों और वर्गों में वृद्घि असमान बनी रही है। इन परिस्थितियों में प्रत्यक्ष हस्तांतरण की दलील इस नाकामी को ढकने के लिए ही है, न कि समस्या को हल करने के लिए। इन दोनों क्षेत्रों में हाथ लगी निराशा के कारण ही ऐसी तमाम योजनाएं सामने आई हैं जो किसानों, ग्रामीण आबादी या अत्यंत गरीब लोगों को लक्षित करती हैं। परंतु उनका साझा लक्ष्य एक ही है, सरकारी धन को तयशुदा लाभार्थी तक पहुंचाना।
समकालीन भारत में राजकोषीय नीति का लक्ष्य इन वजहों से बदल गया है। सार्वजनिक व्यय की उत्पादकता कम है और भ्रष्टाचार और कमजोर तरीके से लक्षित किए जाने के कारण इसे दिक्कत आ रही है। इन समस्याओं को हल करने के लिए तकनीक का इस्तेमाल काफी हद तक विफल साबित हुआ है। इसके समांतर वृद्घि की प्रक्रिया भी बहुत हद तक असमानता भरी रही है। ऐसा केवल वृद्घि के संदर्भ में नहीं हुआ है बल्कि इसका संबंध इस बात से भी है कि इसमें किसकी प्रतिभागिता है। ऐसे में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच निरंतर यह भावना बढ़ रही है कि वे उत्पादक समावेशन के जरिये समावेशी वृद्घि के बजाय सार्वजनिक संसाधनों का इस्तेमाल सार्वजनिक वस्तुओं और सेवाओं के लिए जाए। वित्तीय लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए काम करने के बजाय राजकोषीय नीति अब उन लोगों की क्षतिपूर्ति करने का काम कर रही है जिनसे समावेशी विकास का वादा किया गया था।
विकास राज्य से पूरक राज्य की दिशा में होने वाले इस बदलाव को लेकर किसी भी राजनीतिक या वैचारिक नजरिये से इतर एक अहम राजकोषीय सिद्घांत यह है कि राजकोषीय नीति प्रतिबद्घता की एक विरासत तैयार करती है। हमारे देश में सार्वजनिक व्यय का ऐतिहासिक लक्ष्य व्यय और सार्वजनिक परिसंपत्ति निर्माण की विरासत तैयार करना रहा है। हमारे यहां ढेर सारे सार्वजनिक संस्थान और विकास योजनाएं हैं जिनको बाकायदा तैयार किया गया है। इस्पात संयंत्र से लेकर, विनिर्माण फर्म और विश्वविद्यालय तक ऐसे संस्थानों में आते हैं। सरकारी बैंक और तेल विपणन कंपनियों द्वारा विकास के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए काम करना अब पुराने जमाने की बात हो चुकी है लेकिन अभी भी इन पर सरकार का नियंत्रण है और लक्ष्य बदल जाने के बाद भी वह उन पर व्यय कर रही है।
हमारे देश में जब राजकोषीय नीति का लक्ष्य बदलता है तब ऐसा कोई ढांचागत समायोजन नहीं किया जाता है जिसके तहत पुराने राजकोषीय लक्ष्यों पर से व्यय को कम करके नए लक्ष्यों पर व्यय में इजाफा किया जाए। व्यापक तौर पर बात करें तो ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ऐसा कोई ढांचा मौजूद ही नहीं होता जिसके अधीन राजकोषीय नीति का निर्माण और क्रियान्वयन किया गया होता है। मध्यम अवधि के राजकोषीय ढांचे को अगर बजट निर्माण और क्रियान्वयन की प्रक्रिया में शामिल रखा जाए तो दोनों स्तरों पर सरकारों को यह राजकोषीय बदलाव करने में आसानी होती है। इस प्रकार बिना राजकोषीय समावेशन के लक्ष्य से समझौता किए राजकोषीय गुंजाइश सुनिश्चित करने का अवसर मिलता है। राजकोषीय गुंजाइश कम होने से कई खर्च सीमित हुए हैं। हमारे यहां न अच्छे अस्पताल हैं और न ही पर्याप्त लड़ाकू विमान। यहां तक कि बहुत अच्छा सार्वजनिक परिवहन तक नहीं है।
हाल की घोषणाओं से लगता है कि सरकार का प्राथमिक लक्ष्य क्षतिपूर्ति का पुनर्वितरण हो गया है और राजनेता और कार्यपालिका दोनों इस पर सहमत हैं। ऐसे में हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि अतीत के व्यय की विरासत इस नए लक्ष्य को प्रभावित न करे।
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