Wednesday, April 24, 2019
Tuesday, April 23, 2019
Wednesday, April 3, 2019
The Hindu Editorial for SBI PO, LIC AAO and IDBI PO
Serious setback: on SC setting aside RBI's ‘Feb. 12 circular
The Supreme Court order quashing a circular issued by the RBI on resolution of bad loans is a setback to the evolving process for debt resolution. The voiding of the February 12, 2018 circular could slow down and complicate the resolution process for loans aggregating to as much as ₹3.80 lakh crore across 70 large borrowers, according to data from the ratings agency ICRA. The circular had forced banks to recognise defaults by large borrowers with dues of over ₹2,000 crore within a day after an instalment fell due; and if not resolved within six months after that, they had no choice but to refer these accounts for resolution under the Insolvency and Bankruptcy Code. Mounting bad loans, which crossed 10% of all advances at that point, and the failure of existing schemes such as corporate debt restructuring, stressed asset resolution and the Scheme for Sustainable Structuring of Stressed Assets (S4A) to make a dent in resolving them formed the backdrop to this directive. The circular was aimed at breaking the nexus between banks and defaulters, both of whom were content to evergreen loans under available schemes. It introduced a certain credit discipline — banks had to recognise defaults immediately and attempt resolution within a six-month timeframe, while borrowers risked being dragged into the insolvency process and losing control of their enterprises if they did not regularise their accounts. RBI data prove the circular had begun to impact resolution positively.
It is this credit discipline that risks being compromised now. It is not surprising that international ratings agency Moody’s has termed the development as “credit negative” for banks. It is true that the circular failed to take into account the peculiarities of specific industries or borrowers and came up with a one-size-fits-all approach. It is also true that not all borrowers were deliberate defaulters, and sectors such as power were laid low by externalities beyond the control of borrowers. The RBI could have addressed these concerns when banks and borrowers from these sectors brought these issues to its notice. By taking a hard line and refusing to heed representations, the RBI may only have harmed its own well-intentioned move. That said, it is now important for the central bank to ensure that the discipline in the system does not slacken. The bond market does not allow any leeway to borrowers in repayment, and there is no reason why bank loans should be any different. The RBI should study the judgment closely, and quickly reframe its guidelines so that they are within the framework of the powers available to it under the law. Else, the good work done in debt resolution in the last one year will be undone.
Hindi Editorial for RRB PO and Clerk 2019-20
अचानक नहीं हुआ होगा अंतरिक्ष में परीक्षण का फैसला
पिछले दिनों एक ऐंटी सैटेलाइट (ए-सैट) परीक्षण में रक्षा अनुसंधान एवं विकास संस्थान (डीआरडीओ) की अवरोधक मिसाइल ने पृथ्वी से 300 किलोमीटर की ऊंचाई पर एक उपग्रह को नष्ट कर दिया। यह परीक्षण कई सवाल खड़े करता है। आरोप है कि यह परीक्षण राजनीति से प्रेरित था और इस समय इस क्षमता के प्रदर्शन की जरूरत न होते हुए भी आम चुनाव को ध्यान में रखकर इसे अंजाम दिया गया। कुछ की दलील है कि यह सैन्य शोध एवं विकास के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता को दर्शाता है। इस बहस को समझने के लिए बैलिस्टिक मिसाइल, बैलिस्टिक मिसाइल डिफेंस और ए-सैट अवरोध को समझना आवश्यक है।
बैलिस्टिक मिसाइल: बैलिस्टिक मिसाइल एकदम सामान्य सिद्धांत पर काम करती है और इसका प्रहार काफी हद तक दिशा और शक्ति पर निर्भर करता है। अग्नि-5 जैसी लंबी दूरी की बैलिस्टिक मिसाइल को एक सील बंद कनस्तर से दागा जाता है। लॉन्च के वक्त कनस्तर के भीतर स्थित गैस जनरेटर 50 टन की मिसाइल को 20-25 मीटर प्रति सेकंड की गति से छोड़ता है। बाहर आने के बाद पहले चरण की रॉकेट मोटर काम करने लगती है और मिसाइल को ऊपर ले जाती है।
30 सेकंड के भीतर यह सुपरसोनिक गति पकड़ लेती है और एक मिनट बाद जब पहला चरण समाप्त होता है और दूसरा चरण शुरू होता है तब मिसाइल ध्वनि की गति से पांच गुना तेजी से यात्रा कर रही होती है। जब तीसरा चरण समाप्त होता है और मिसाइल बूट चरण में आती है तब मिसाइल पृथ्वी से 1,200 से 1,400 किमी ऊपर रहती है और वह ध्वनि की गति से छह गुना तेजी से भ्रमण करती है। वह इस गति से 5,000 किलो युद्धक सामग्री को लक्ष्य की ओर ले जाता है जबकि गुरुत्व बल उसे पृथ्वी की ओर खींचता है। वातावरण में पुन: प्रवेश के समय मिसाइल की नोक 3,000-4,000 डिग्री सेंटीग्रेड तक गर्म हो जाती है। 45 सेकंड की इस अवधि में यह नोक धीरे-धीरे जल जाती है और अंदर रखी युद्ध सामग्री बच जाती है।
इस चरण में मिसाइल को अवरुद्ध न किया जा सके और उस पर हमला करना कठिन हो इसलिए इसमें लगी युद्ध सामग्री अपना स्थान बदलकर पैंतरेबाजी करती है। इस बीच एक गाइडेंस सिस्टम मिसाइल को लक्ष्य की ओर ले जाता है। डीआरडीओ के मुताबिक अग्नि-5 मिसाइल 5,000 किमी की दूरी पर तय लक्ष्य से कुछ 100 मीटर के दायरे में प्रहार करती है।
ऐंटी बैलिस्टिक मिसाइल: यह प्रणाली बैलिस्टिक मिसाइल को नष्ट करने के लिए होती है। इसे शहरों और कमांड पोस्ट जैसी जगहों के आसपास लगाया जाता है। अपनी दिशा में आ रही बैलिस्टिक मिसाइल की पहचान, प्रोफाइलिंग और मार गिराना एक जटिल काम है। शत्रु निशाना सुनिश्चित करने के लिए एक साथ कई मिसाइल भी दाग सकता है।
सैद्धांतिक तौर पर एक मिसाइल को किसी भी चरण में मारा जा सकता है। बूट चरण के दौरान जब यह धीमी होती है तब इसे सबसे आसानी से निशाना बनाया जा सकता है। परंतु यह चरण केवल 5 मिनट का होता है यानी अवरोध के लिए पर्याप्त समय नहीं होता और यह लक्ष्य से हजारों किमी दूर होती है। मध्यम चरण 1,200 सेकंड या 20 मिनट का होता है। इस दौरान सामने से आ रही मिसाइल को अवरुद्ध किया जा सकता है लेकिन दूरी फिर भी अधिक होती है और इसकी गति बहुत तेज होती है।
टर्मिनल चरण में मिसाइल को मार गिराने का असली अवसर होता है। कंप्यूटरीकृत ऐंटी बैलिस्टिक मिसाइल तंत्र के लिए यहां आसानी होती है क्योंकि उसका निशाना करीब होता है। वातावरण में प्रवेश के कारण मिसाइल की गति काफी कम हो चुकी होती है। मिसाइल को दो स्तरों पर रोका जा सकता है। पहला पृथ्वी से 150 किमी की ऊंचाई पर और दूसरा 30 से 40 किमी ऊपर। चूक की गुंजाइश कम करने के लिए दो इंटरसेप्टर लॉन्च किए जाते हैं।
शत्रु की मिसाइल का जल्द से जल्द पता चलने पर ही उसे रोका जा सकता है। आदर्श तौर पर निगरानी उपग्रहों को शत्रु द्वारा दागी गई मिसाइल का पता लगाना चाहिए और ऐसे में ऐंटी बैलिस्टिक मिसाइल तंत्र स्वत: सक्रिय हो जाता है। डीआरडीओ ऐसे उपग्रह पर काम कर रहा है लेकिन अभी ऐंटी बैलिस्टिक मिसाइल तंत्र लंबी दूरी के रडार पर भरोसा करता है जो इजरायल के ग्रीन पाइन रडार से ली गई है।
यह शत्रु की मिसाइल को 1,000 किमी दूर चिह्नित कर लेती है। अंतिम चरण में शत्रु की ओर से आ रही मिसाइल की गति दो किमी प्रति सेकंड तक धीमी हो जाती है जबकि उसे रोकने वाली मिसाइल के पास 150 किमी की ऊंचाई तक पहुंचने के लिए दो मिनट से कम वक्त होता है। वह तेज गति से ऊपर जा रही होती है। तमाम आकलन के बाद यह शत्रु की मिसाइल के 10 मीटर के दायरे में विस्फोट कर सकती है।
ऐंटी-सैटेलाइट (ए-सैट): एक सैटेलाइट को मारने के लिए वैसी ही तकनीक चाहिए जिसका परीक्षण डीआरडीओ 2008 से ऐंटी बैलिस्टिक मिसाइल में करता आया है। प्रमुख अंतर यह है कि सैटेलाइट 300 किमी की ऊंचाई पर होता है जबकि उपरोक्त परीक्षण 30 से 150 किमी ऊंचाई के लिए किए गए। उस ऊंचाई पर प्रहार करने के लिए कहीं उन्नत प्रणाली चाहिए। सैटेलाइट पर प्रहार सटीक होना जरूरी है क्योंकि यह 27,000 किमी प्रति घंटे की तेजी से गतिशील होता है। दूसरी ओर इसे निशाना बनाना आसान भी होता है क्योंकि यह एक तयशुदा मार्ग पर चलता है और इसकी गतिविधियों के बारे में पूरा अंदाजा रहता है।
हालिया ए-सैट परीक्षण का समय सवाल खड़े करता है। इस परीक्षण के पहले दो वर्ष तक तैयारी चली होगी इसलिए यह कहना सही नहीं कि सरकार ने अचानक निर्णय लिया। परंतु यह दलील भी ठीक नहीं कि भारत ने अंतरिक्ष सुरक्षा व्यवस्था से बाहर होने के भय से ऐसा किया होगा।
Tuesday, April 2, 2019
The Hindu Editorial #SBIPO #LICAAO #IDBIPO
Turkish surprise: on ruling party’s losses in local polls
Turkish President Recep Tayyip Erdoğan had led the campaign for Sunday’s municipal elections from the front, so the reverses to his Justice and Development Party (AKP) have come as a personal jolt. The biggest blow to the Islamist party is the end of its long dominance of the capital Ankara and possibly Istanbul too. These polls were the first since Mr. Erdoğan was re-elected in June 2018, after Turkey switched to a presidential form of government authorised in a 2017 referendum. The Republican People’s Party (CHP), the principal Opposition, and pro-Kurdish parties have made huge inroads. They had managed to contain the AKP’s margin of victory in the June presidential and parliamentary polls. Given how much he had raised the stakes, the question is whether he will reconsider recent policies that have done little to restore investor confidence in the economy following the lira’s spectacular depreciation last year. Prices of food commodities in particular have remained high. But even as farmers and traders reeled under high fuel and fertilizer costs and unfavourable weather conditions, a government hamstrung by the ballooning deficit could do no more than turn its ire on them. It accused traders of hoarding stocks and spiking costs. In addition, local governments forced retailers to hold down prices. The move put a further squeeze on the sector and hurt the government’s electoral fortunes. A beleaguered Mr. Erdoğan unleashed the rhetoric of food “terrorism”, but was unable to deflect attention from the need for a fiscal stimulus. Stiffer fiscal targets set by the Finance Minister, who is Mr. Erdoğan’s son-in-law, have foreclosed any conventional avenues to contain the price escalation.
The travails are symptomatic of the conditions afflicting Turkey. They go back to the run on the currencies of several emerging economies, leading to the depreciation of the lira by a third. Ankara’s woes turned acute following the flow of hot money and large borrowings by businesses in external currencies. Mr. Erdoğan is opposed to higher interest rates, and the government’s response to halt the lira’s slide and contain inflation was belated. Conversely, lending rates in Turkey now are among the world’s highest, which makes lowering them quickly a risky proposition. The challenges are compounded by strained relations with its traditional allies, particularly the U.S. Washington has announced a halt to supplies related to the F-35 jets, in retaliation for Ankara’s decision to buy a Russian missile defence system. The diplomatic standoff over the detention of a U.S. pastor too was a factor behind the weakening of the lira last year. As the next elections are a few years away, expectations are that Mr. Erdoğan will adopt a more pragmatic approach to address the economic challenges.
Hindi Editorial for RRB PO and Clerk
आरबीआई को झटका
प्रथम दृष्टि में देखा जाए तो सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के 12 फरवरी के परिपत्र को खारिज करने का जो निर्णय लिया है वह एकदम विधि के अनुरूप है। उस परिपत्र में बैंकों से कहा गया था कि वे एक दिन के डिफॉल्ट को भी चिह्नित करें और ऐसे डिफॉल्टरों के प्रति ऋणशोधन की प्रक्रिया शुरू करें। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि बैंकिंग नियमन अधिनियम की धारा 35एए के आलोक में आरबीआई को ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) को संदर्भित करते हुए ऐसा परिपत्र नहीं जारी करना चाहिए था। अदालत ने यह भी कहा कि आईबीसी के अधीन दिए जाने वाले संदर्भ मामला विशेष के आधार पर दिए जाने चाहिए और अधिनियम के तहत इन्हें केंद्र सरकार की मंजूरी प्राप्त होनी चाहिए। अदालत ने आईबीसी की संवैधानिक वैधता की बात नहीं की जो राहत की बात है क्योंकि देश को आईबीसी की आवश्यकता है, ताकि ऋण व्यवस्था समुचित ढंग से काम कर सके।
यह निर्णय निजी क्षेत्र के बिजली उत्पादकों और कुछ कपड़ा, चीनी और नौवहन कंपनियों द्वारा गत अगस्त में दायर याचिका पर आया है। याचिका उस समय दायर की गई थी जब आरबीआई द्वारा ऋण निस्तारण के लिए तय 180 दिन की समय सीमा समाप्त ही हुई थी। याचियों का कहना था कि आरबीआई सबको एक ही तराजू से तौल रहा है और इस दौरान उन अलग-अलग कारकों का ध्यान नहीं रखा जा रहा है जो इन कंपनियों की ऋण चुकता करने की क्षमता को प्रभावित करते हैं। कंपनियों ने यह दलील भी दी कि वे वैकल्पिक निस्तारण योजना को लेकर कर्ज देने वालों से चर्चा कर रही हैं। 12 फरवरी के परिपत्र के कारण कुल 3.8 लाख करोड़ रुपये मूल्य का अनुमानित कर्ज प्रभावित हुआ जो 70 बड़े कर्जदारों के पास था। इसमें से 2 लाख करोड़ रुपये मूल्य का कर्ज अकेले बिजली क्षेत्र का था। बिजली क्षेत्र के नजरिये से भी देखें तो मंगलवार का निर्णय सही प्रतीत होता है। बिजली उत्पादक कंपनियों की समस्याएं, राजनीतिक निर्णय प्रक्रिया से जुड़ी हुई हैं जिस पर उनका कोई नियंत्रण नहीं होता। उनके फंसे कर्ज में इजाफे की प्रमुख वजह वितरण कंपनियों के भुगतान में देरी या उनका भुगतान न होना है। यकीनन राज्यों की बिजली वितरण कंपनियां बकाये की समस्या से जूझ रही हैं। केंद्र सरकार के ताजा आंकड़ों के मुताबिक यह राशि 16,000 करोड़ रुपये है। यह मामला वोट बैंक राजनीति और उपभोक्ताओं, किसानों और ग्रामीण परिवारों के लिए बिजली दरें न बढ़ाने से जुड़ा है।
आरबीआई के परिपत्र को खारिज करने का अर्थ यह है कि आईबीसी की प्रक्रिया में आरबीआई का खास लेनादेना नहीं होगा। चूंकि ऋण निस्तारण के तमाम अन्य तरीके प्राय: विफल रहे हैं और अदालत का यह निर्णय ऋण निस्तारण के पारदर्शी और उत्कृष्ट तरीके को बैंकिंग नियामक की निगरानी से दूर करता है। इसका अर्थ यह भी है कि तनावग्रस्त खातों के पुनर्गठन के लिए आरबीआई द्वारा प्रायोजित कोई योजना नहीं है। हालांकि अदालत ने कहा कि बैंकों के पास डिफॉल्ट करने वाले कर्जदारों को आईबीसी के पास भेजने का विकल्प रहेगा। ऐसा तभी होगा जब निस्तारण योजना विफल हो जाए। अब बैंकों के ऊपर निस्तारण प्रक्रिया को तय अवधि में खत्म करने का कोई दबाव नहीं होगा। यह चिंतित करने वाली बात है क्योंकि वर्षों तक फंसे कर्ज को चिह्नित करने में हुई देरी की वजह से भी करीब 10 लाख करोड़ रुपये का फंसा कर्ज एकत्रित हो गया है। दिवालिया अदालत में ले जाए जाने की आशंका कई कर्जदारों की इस मानसिकता को बदलने में सहायक होती है कि बड़े कर्ज का पुनर्भुगतान बैंक की समस्या है। चूंकि बैंकिंग अनुशासन को खत्म करना सही नहीं होगा इसलिए केंद्र सरकार और आरबीआई को एक व्यावहारिक कानूनी योजना पेश करनी चाहिए।
RECRUITMENT OF PROBATIONARY OFFICERS ADVERTISEMENT NO: CRPD/ SBI PO/ 2019-20/ 01 (2000)
Applications are invited from eligible Indian Citizens for appointment as Probationary Officers (POs) in State Bank of India. Candidates selected are liable to be posted anywhere in India
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The Hindu Editorial
Space for campaign: On PM Modi’s address on ASAT test
In ruling that Prime Minister Narendra Modi did not violate the Model Code of Conduct by announcing through a nationally televised address the demonstration of India’s capability to bring down an operational satellite, the Election Commission has taken a possibly correct view of the Code’s provisions. However, it remains a narrow technical view as it is a thin line that divides the idea of making a high-level declaration of a defence capability from using it for electoral advantage. Opposition parties had accused the Prime Minister of violating the Model Code by touting the demonstration of the anti-satellite (ASAT) missile test as a significant achievement of the ruling BJP. CPI(M) general secretary Sitaram Yechury had formally complained to the EC. There were questions about the timing of the test as well as the manner of announcement as the country is in election mode. A five-member committee formed by the EC concluded that the relevant provision was not attracted in this case. Part VII of the Code covering the “party in power” says that “…the misuse of official mass media during the election period for partisan coverage of political news and publicity regarding achievements with a view to furthering the prospects of the party in power shall be scrupulously avoided.” The committee’s finding that there was no “misuse of official mass media” as Doordarshan and AIR took the feed from a news agency, and more than 60 channels did the same, is rooted in the letter of the code, not its spirit.
It is possible to come to an equally valid conclusion that Mr. Modi’s action in making the announcement himself, rather than letting the DRDO, the agency involved, do so violates the bar on “furthering the prospects” of the ruling party by the nature of the publicity given to the achievement. The practice of using a private agency to record the announcement and asking it to share the feed , obliquely serves the purpose of generating publicity through the official media. As the legal maxim goes, what cannot be done directly cannot be done indirectly either. Given that Mr. Modi gave advance publicity to the announcement, there is really no virtue in claiming that DD and AIR were not used for the purpose. As a landmark achievement in defence research, it deserved a public pronouncement at a high level. Even then, letting the DRDO explain the achievement first would have served the purpose. That the motive was to proclaim the ASAT demonstration as an achievement of the regime in the field of national security became obvious when it was propagated by the ruling party that its predecessor did not have the political will to approve such a test. The BJP must demonstrate it will not use such achievements for partisan advantage.
Hindi Editorial for RRB PO and OA
दर में कटौती का फिर आया अवसर
मुंबई में भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर वाईवी रेड्डी की नई पुस्तक इंडियन फिस्कल फेडरलिज्म (सह लेखक जी आर रेड्डी) के लोकार्पण के अवसर पर मौजूदा गवर्नर शक्तिकांत दास ने रेड्डी के कार्यकाल को निरंतरता और बदलाव के समुचित मिश्रण वाला कार्यकाल बताया। रेड्डी ने सितंबर 2003 में पद संभालते समय खुद भी कुछ ऐसा ही कहा था। कार्यक्रम के दौरान जब रेड्डी की बारी आई तो उन्होंने नए गवर्नर के रुख में आए बदलाव की भी बात की। रेड्डी ने अपने पांच वर्ष के कार्यकाल में ब्याज दरों में कभी कटौती नहीं की थी जबकि दास ने अपनी पहली मौद्रिक नीति बैठक में ही दर कम की थी। रेड्डी के कार्यकाल के दौरान यह गवर्नर की नीति थी जबकि अब यह निर्णय मौद्रिक नीति समिति करती है।
ऐसे में अगर 4 अप्रैल को होने वाली नए वित्त वर्ष की पहली बैठक में पुन: दर में कटौती हो जाए तो आश्चर्य नहीं। यह कटौती कितनी होगी? फरवरी की तरह 25 आधार अंक या इससे अधिक यानी 50 आधार अंक? फरवरी में आरबीआई ने नीतिगत दर में कटौती कर उसे 6.25 फीसदी कर दिया था। अगस्त 2017 के बाद यह पहली कटौती थी। उसने समाकलित सख्ती के स्थान पर मौद्रिक नीति को निरपेक्ष भी बनाया था। उस वक्त उसने खाद्य सामग्री में निरंतर अपस्फीति और ईंधन कीमतों में कमी और 2019 में मॉनसून के सामान्य रहने की उम्मीद के साथ आरबीआई ने खुदरा महंगाई के अनुमान को मार्च 2019 तिमाही के लिए घटाकर 2.8 फीसदी कर दिया। वित्त वर्ष 2020 की पहली तिमाही में इसके 3.2 से 3.4 फीसदी और तीसरी तिमाही में 3.9 फीसदी रहने की बात कही गई। फरवरी में देश की मुख्य मुद्रास्फीति सालाना आधार पर 2.57 फीसदी बढ़ी। हालांकि खाद्य मुद्रास्फीति लगातार पांचवें महीने नकारात्मक बनी रही लेकिन क्रमबद्घ तरीके से देखें तो इसमें इजाफा हुआ।
मुद्रास्फीति बढऩे की दशा में आरबीआई कटौती क्यों करेगा? हालांकि फरवरी के आंकड़े विश्लेषकों के अनुमान से अधिक थे लेकिन मार्च तिमाही में मुद्रास्फीति आरबीआई के अनुमान से कम रह सकती है। वित्त वर्ष 2020 के लिए यह 4 फीसदी से कमतर रह सकती है। तेल कीमतें बढ़ी हैं लेकिन स्थानीय मुद्रा की मजबूती उससे निपटने में कारगर रही। आरबीआई मुद्रास्फीति के लिए 4 फीसदी का लक्ष्य 2 फीसदी के दायरे में रख रहा है। मुद्रास्फीति के अलावा गत नीति और वर्तमान के बीच ऐसा क्या हुआ कि दर कम की जाए? आर्थिक गतिविधियां कमजोर बनी हुई हैं और औद्योगिक उत्पादन सूचकांक में वृद्घि दिसंबर की 2.6 फीसदी से घटकर जनवरी में 1.7 फीसदी रह गई।
ग्रामीण और शहरी दोनों इलाकों में उपभोक्ता वस्तुओं की मांग में कमी आ रही है और निवेश का परिदृश्य बद से बदतर हो गया है। सीमेंट, स्टील, बिजली, वाहन और माल ढुलाई आदि के क्षेत्र के आंकड़े निवेश चक्र में अत्यधिक बुरी स्थिति दर्शा रहे हैं। शुरुआत में कई लोग यह मानते थे कि गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के लिए नकदी संकट इस दिक्कत के लिए जिम्मेदार है लेकिन अब अंदाजा लग रहा है कि इसकी वजहें कहीं अधिक गहरी हैं। फेडरल रिजर्व के शांतिवादी रुख और वैश्विक वृद्घि में नरमी भी आरबीआई को दरों में कटौती के लिए प्रोत्साहित करेगी। नॉर्वे, अर्जेंटीना और तुर्की के अलावा शेष विश्व शिथिल मौद्रिक नीति व्यवस्था की जानिब बढ़ रहा है। नॉर्वें के केंद्रीय बैंक ने हाल ही में प्रमुख नीतिगत दर में 0.75 फीसदी से एक फीसदी की बढ़ोतरी की है। यह सितंबर के बाद से दूसरी बढ़ोतरी है। जून में एक बार फिर बढ़ोतरी की जा सकती है। अर्जेंटीना ने मुद्रास्फीति का मुकाबला करने और अपनी मुद्रा को मजबूत बनाने के लिए मानक ब्याज दर में इजाफा किया है। तुर्की के केंद्रीय बैंक ने भी लीरा की कमजोरी के बाद मौद्रिक रुख सख्त किया है।
यूरो क्षेत्र और स्वीडन निरंतर प्रोत्साहन के बावजूद लगातार नकारात्मक ब्याज दरों के चक्र में हैं। 10 वर्ष के मानक अमेरिकी ट्रेजरी नोट पर प्रतिफल 2007 के बाद पहली बार तीन महीने की दर से नीचे चला गया है। इसे भी 2019 के अंत में दरों में कटौती का संकेतक माना जा रहा है।
इस परिदृश्य में मौद्रिक नीति समिति के समक्ष तीन विकल्प हैं:
शांतिपूर्ण रुख के साथ 25 आधार अंक की कटौती।
25 आधार अंक की कटौती के साथ रुख में बदलाव और उसे निरपेक्ष से समायोजन वाला बनाना।
50 आधार अंक की कटौती के साथ रुख में बदलाव।
हालांकि कई लोग 50 आधार अंक की कटौती की बात कर रहे हैं लेकिन मेरा मानना है कि यह 25 आधार अंक की होगी। अगर मौद्रिक नीति समिति और अधिक आंकड़ों की प्रतीक्षा करना चाहती है तो संभव है वह रुख में बदलाव न लाए लेकिन थोड़ी शिथिलता दिखाए। 50 आधार अंक की कटौती इसलिए नहीं क्योंकि आरबीआई नई सरकार के आगमन तक प्रतीक्षा कर सकता है। इसके अलावा तब तक मॉनसून को लेकर स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। अगर रुख में बदलाव नहीं लाया गया तो उसकी शुचिता पर प्रश्न चिह्न लग सकता है। जून और अगस्त 2018 में दर में वृद्घि तब हुई थी जब रुख निरपेक्ष था। पिछली नीति में दरों में कटौती के साथ निरपेक्ष रुख रखा गया था। अगर एक अन्य कटौती के लिए रुख में बदलाव नहीं किया गया तो शिथिलता का रुख सही दिशा देने वाला साबित होगा। बाजार पहले ही 25 आधार अंक की कटौती के हिसाब से मूल्यांकित है और अब यह आरबीआई पर निर्भर करता है कि वह और अधिक कटौती करता है या नहीं। 50 आधार अंक की कटौती यह बता सकती है कि आरबीआई गिरावट के चक्र से बाहर निकलना चाहता है।
मौद्रिक नीति समिति के सभी छह सदस्य 25 आधार अंक की कटौती के पक्ष में हो सकते हैं। एक-दो सदस्य बड़ी कटौती की भी वकालत कर सकते हैं। रुख में बदलाव पर भी सब एकमत नहीं होंगे। वर्ष की पहली नीति यह भी तय करेगी कि देश की वृद्घि की दिशा में आरबीआई का रुख क्या है। फरवरी की नीति में आरबीआई ने 2020 की आर्थिक वृद्घि का अपना अनुमान संशोधित करके 7.6 फीसदी से 7.4 फीसदी कर दिया था। क्या इसमें और कटौती की जाएगी? फिच रेटिंग ने हाल ही में 2020 में भारत के वृद्घि अनुमान केा 7 फीसदी से घटाकर 6.8 फीसदी कर दिया। जापान की ब्रोकरेज फर्म नोमुरा ने भी कहा है कि 2020 में भारत की वृद्घि दर के 7 फीसदी से नीचे आ सकती है।
मार्च के पहले सप्ताह में सांख्यिकी कार्यालय ने 2018-19 के जीडीपी अनुमान को 7.2 फीसदी से घटाकर 7 फीसदी कर दिया था जो पांच वर्ष का निम्रतम स्तर था। दिसंबर तिमाही के लिए उसने 6.6 फीसदी का अनुमान जताया है जो पांच तिमाहियों का न्यूनतम है। दास के पास अवसर है कि नीतिगत दर में कटौती कर वृद्घि पथ पर वापसी का मार्ग प्रशस्त करें।
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